आदौ कर्म प्रसङ्गात् कलयति कलुषं ॥ श्रीशिवापराधक्षमापनस्तोत्रम्‌ ॥ Shree Shivaparadh Kshmapan Stotram

 ॥श्रीशिवापराधक्षमापनस्तोत्रम्‌॥ 

Shivling covered with Merigold flower


आदौ कर्म प्रसङ्गात् कलयति कलुषं मातृकुक्षौ स्थितं मां
विण्मूत्रामेध्यमध्ये क्वथयति नितरां जाठरो जातवेदा:।
यद्यद्वै तत्र दुःखं व्यथयति नितरां शक्यते केन वक्तुं
क्षन्तव्यो मेऽपराध: शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो॥ १॥ 


पहले कर्म प्रसंग से किया हुआ पाप मुझे माता को कुक्षि में ला बिठाता है, फिर उस अपवित्र विष्ठा-मूत्र के बीच जठराग्नि खूब संतप्त करता है। वहाँ जो-जो दुःख निरन्तर व्यथित करते रहते हैं, उन्हें कौन कह सकता है? हे शिव! हे शिव! हे शिव! हे महादेव! हे शम्भो! अब मेरा अपराध क्षमा करो! क्षमा करो!॥ १॥ 


बाल्ये दुःखातिरिको मललुलितवपु: स्तन्यपाने पिपासा
नो शक्तश्चेन्द्रियेभ्यो भवगुणजनिता जन्तवो मां तुदन्ति।
नानारोगादिदुःखाद्रुदनपरवश: शंकरम् न स्मरामि
क्षन्तव्यो मेऽपराध: शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो॥ २॥


बाल्यावस्था में दुःख को अधिकता रहती थी, शरीर मल-मूत्र से लिथड़ा रहता था और निरन्तर स्तन पान की लालसा रहती थी; इन्द्रियों में कोई कार्य करने की सामर्थ्य न थी; शैवी माया से उत्पन्न हुए नाना जन्तु मुझे काटते थे; नाना रोग आदि दुःखों के कारण मैं रोता ही रहता था, उस समय भी मुझसे शंकर का स्मरण नहीं बना, इसलिये हे शिव! हे शिव! हे शिव! हे महादेव! हे शम्भो! अब मेरा अपराध क्षमा करो! क्षमा करो!॥२॥


प्रौढोऽहं यौवनस्थो विषयविषधरै: पञ्चभिर्मर्मसन्धौ
दष्टो नष्टो विवेक: सुतधनयुवतिस्वादसौख्ये निषणण:।
शैवीचिन्ताविहीनं मम हृदयमहो मानगर्वाधिरूढं
क्षन्तव्यो मेऽपपराध: शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो॥ ३॥ 

जब मैं युवा-अवस्था में आकर प्रौढ हुआ तो पाँच विषय रूपी सर्पो ने मेरे मर्मस्थानों में डॅंसा, जिससे मेरा विवेक नष्ट हो गया और मैं धन, स्त्री और संतान के सुख भोगने में लग गया। उस समय भी आपके चिन्तन को भूलकर मेरा हृदय बड़े घमण्ड और अभिमान से भर गया। अत: हे शिव! हे शिव! हे शिव! हे महादेव ! हे शम्भो अब मेरा अपराध क्षमा करो! क्षमा करो !॥ ३॥ 


वार्द्धक्ये चेन्द्रियाणां विगतगतिमतिश्चाधिदैवादितापै:
पापै रोगैर्वियोगैस्त्वनवसितवपु: प्रौढिहीनं च दीनम्।
मिथ्यामोहाभिलाषैर्भ्रमति मम मनो धूर्जटेर्ध्यानशून्यं
क्षन्तव्यो मेऽपराध: शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो॥ ४॥ 



वृद्धावस्था में भी, जब इन्द्रियों की गति शिथिल हो गयी है, बुद्धि मन्द पड़ गयी है और आधिदैविक आदि तापों से, पापों से, रोगों से और वियोगों से शरीर जर्जरित हो गया है, मेरा मन मिथ्या मोह और अभिलाषाओं से दुर्बल और दीन होकर श्रीमहादेवजी के चिन्तन से शून्य ही भ्रम रहा है। अतः हे शिव! हे शिव! हे शिव! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरा अपराध क्षमा करो ! क्षमा करो !॥ ४॥ 


नो शक्यं स्मार्तकर्म प्रतिपदगहनप्रत्यवायाकुलाख्यं
श्रौते वार्ता कथं मे द्विजकुलविहिते ब्रह्ममार्गे सुसारे। 
नास्था धर्मे विचार: श्रवणमननयो: कि निदिध्यासितव्यं 
क्षन्तव्यो मेऽपराध: शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो॥ ५॥

 
पद-पद पर अति गहन प्रायश्चित्तों से व्याप्त होने के कारण मुझसे तो स्मार्तकर्म भी नहीं हो सकते, फिर जो द्विजकुल के लिये साररूप में विहित हैं, उन ब्रह्म प्राप्ति के मार्गस्वरूप पूर्णत: प्रमाणित श्रौतकर्मों की तो बात ही क्या है? धर्म में आस्था नहीं है और श्रवण-मनन के विषय में विचार ही नहीं होता, निदिध्यासन ध्यान भी कैसे किया जाय ? अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शिव ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरा अपराध क्षमा करो! क्षमा करो !॥ ५॥


स्नात्वा प्रत्यूषकाले स्नपनविधिविधौ नाहतं गाङ्गतोयं
पूजार्थं वा कदाचिद् बहुतरगहनात् खण्डबिल्वीदलानि।
नानीता पद्ममाला सरसि विकसिता गन्धपुष्पे त्वदर्थं
क्षन्तव्यो मेऽपराध: शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो॥ ६॥ 


प्रात:काल स्नान कर के आपका अभिषेक करने के लिये मैं गंगा जल लेकर प्रस्तुत नहीं हुआ, न कभी आप की पूजा के लिये वन से बिल्वपत्र ही लाया और न आपके लिये तालाब में खिले हुए कमलों की माला तथा गन्ध-पुष्प ही लाकर अर्पण किये। अतः हे शिव! हे शिव! हे शिव! हे महादेव! हे शम्भो! अब मेरा अपराध क्षमा करो! क्षमा करो!॥६॥


दुग्धैर्मध्वाज्ययुक्तै र्दधिसितसहितैः स्नापितं नेव लिङ्गम्
नो लिप्तं चन्दनाद्यै: कनकविरचितै: पूजितं न प्रसूनै: ।
धूपै: कर्पूरदीपैर्विविधरसयुतेर्नैव भक्ष्योपहारैः
क्षन्तव्यो मेऽपराध: शिव शिव
 शिव भो श्रीमहादेव शम्भो॥ ७॥ 


मधु , घृत, दधि और शर्करायुक्त दूध (पंचामृत ) से मैंने आपके लिंग को स्नान नहीं कराया; चन्दन आदि से अनुलेपन नहीं किया; धतूरे के खिले हुए फूलों धूप, दीप, कपूर तथा नाना रसों से युक्त नैवेद्यों द्वारा पूजन भी नहीं किया। अतः हे शिव ! हे शिव | हे शिव ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरे अपराधों को क्षमा करो ! क्षमा करो ! ॥ ७॥


ध्यात्वा चित्ते शिवाख्यं प्रचुरतरधनं नैव दत्तं द्विजेभ्यो
हव्यं ते लक्षसंख्यैर्हुतवहवदने नार्पितं बीजमन्त्रै:।
नो तप्तं गाङ्गतीरे व्रतजपनियमै रुद्रजाप्यैर्न वेदैः
क्षन्तव्यो मेऽपराध: शिव शिव
 शिव भो श्रीमहादेव शम्भो ॥ ८ ॥ 


मैंने चित्त में शिव नामक आपका स्मरण कर के ब्राह्मणों को प्रचुर धन नहीं दिया, न आपके एक लक्ष बीज मन्त्रों द्रारा अग्नि में आहुतियाँ दीं और न ब्रत एवं जप के नियम से तथा रुद्रजाप और वेदविधि से गंगातट पर कोई साधना ही की। अत: हे शिव! हे शिव! हे शिव! हे महादेव! हे शम्भो! अब मेरे अपराधों को क्षमा करो! क्षमा करो!॥ ८॥


स्थित्वा स्थाने सरोजे प्रणवमयमरुत्कुण्डले सूक्ष्ममार्गे
शान्ते स्वान्ते प्रलीने प्रकटितविभवे ज्योतिरूपे पराख्ये।
लिङ्गज्ञे ब्रह्मयवाक्ये सकलतनुगतं शंकरम् न स्मरामि
क्षन्तव्यो मेऽपपराध: शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो॥ ९॥ 



जिस सूक्ष्म मार्ग प्राप्प सहस्न दल कमल में पहुँचकर प्राण समूह प्रणवनाद में लीन हो जाते हैं और जहाँ जाकर वेद के वाक्यार्थ तथा तात्पर्य भूत पूर्णतया आविर्भूत ज्योति रूप शान्त परम तत्त्व में लीन हो जाता है, उस कमल में स्थित होकर मैं सर्वान्तर्यामी कल्याणकारी आपका स्मरण नहीं करता हूँ। अत: हे शिव! हे शिव! हे शिव! हे महादेव! हे शम्भो! अब मेरे अपराधों को क्षमा करो! क्षमा करो!॥९॥ 


नग्नो निःसङ्गशुद्धस्त्रिगुणविरहितो ध्वस्तमोहान्धकारो
नासाग्रे न्यस्तदृष्टि्विदितभवगुणो नेव दृष्ट: कदाचित्। 
उन्मन्यावस्थया त्वां विगतकलिमलं शंकर न स्मरामि
क्षन्तव्यो मेऽपपराध: शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो॥ १०॥ 


नग्न, निःसंग, शुद्ध और त्रिगुणातीत होकर, मोह अन्धकार का ध्वंस कर तथा नासिकाग्र में दृष्टि स्थिर कर मैंने आपके गुणों को जानकर कभी आपका दर्शन नहीं किया और न उन्मनी- अवस्था से कलि मल रहित आप कल्याण स्वरूप का स्मरण ही करता हूँ। अतः: हे शिव! हे शिव! हे शिव! हे महादेव! हे शम्भो | अब मेरे अपराधों को क्षमा करो | क्षमा करो ! ॥ १०॥


चन्द्रोद्धासितशेखरे स्मरहरे गङ्गाधरे शंकरे
सर्पैर्भूषितकण्ठकर्णविवरे नेत्रोत्थवैश्वानरे।
दन्तित्वक्कृतसुन्दराम्बरधरे त्रैलोक्यसारे हरे
मोक्षार्थ कुरु चित्तवृत्तिमखिलामन्यैस्तु कि कर्मभि: ॥ ११॥
 

चन्द्रकला से जिनका ललाट-प्रदेश उद्भासित हो रहा है, जो कन्दर्प दर्प हारी हैं, गंगाधर हैं, कल्याण स्वरूप हैं, सर्पों से जिनके कण्ठ और कर्ण भूषित हैं, नेत्रों से अग्नि प्रकट हो रहा है, हस्तिचर्म की जिनकी कन्था है तथा जो त्रिलोकी के सार हैं, उन शिव में मोक्षे के लिये अपनी सम्पूर्ण चित्त वृत्तियों को लगा दे और कर्मो से क्‍या प्रयोजन है ?॥ ११॥ 


किं वानेन धनेन वाजिकरिभि: प्राप्तेन राज्येन किं
किं वा पुत्रकलत्रमित्रपशुभिर्देहेन गेहेन किम्।
ज्ञात्वैतत्षणभङ्गुरं सपदि रे त्याज्यं मनो दूरतः
स्वात्मार्थ गुरुवाक्यतो भज भज श्रीपार्वतीवल्लभम्॥ १२॥ 


इस धन, घोड़े, हाथी और राज्यादि की प्राप्ति से क्या? पुत्र, स्त्री, मित्र, पशु, देह और घर से क्या? इनको क्षण भंगुर जानकर रे मन! दूर ही से त्याग दे और अविलम्ब आत्म अनुभव के लिये गुरु वचन अनुसार पार्वती वल्लभ श्री शंकर का भजन कर॥ १२॥


आयुर्नश्यति पश्यतां प्रतिदिन याति क्षयं यौवन
प्रत्यायान्ति गता: पुनर्न दिवसा: कालो जगद्भक्षक:।
लक्ष्मीस्तोयतरङ्गभङ्गचपला विद्युच्चलं॑ जीवितं
तस्मान्मां शरणागतं शरणद त्वं रक्ष रक्षाधुना॥ १३॥ 


देखते-देखते आयु नित्य नष्ट हो रही है; यौवन प्रतिदिन क्षीण हो रहा है; बीते हुए दिन फिर लौटकर नहीं आते; काल सम्पूर्ण जगत को खा रहा है। लक्ष्मी जल की तरंग माला के समान चपल है; जीवन बिजली के समान चंचल है; अतः हे शरणागत वत्सल शंकर! मुझ शरणागत की अब तुम रक्षा करो! रक्षा करो!॥ १३॥ 


करचरणकृतं वाक्कायजं॑ कर्मजं वा
भ्रवणनयनजं वा मानसं वाऽपराधम्‌।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्‌ क्षमस्व
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो॥ १४॥


हाथों से, पैरों से, वाणी से, शरीर से, कर्म से, कर्णो से, नेत्रों से अथवा मन से भी जो अपराध किये हों, वे विहित हों अथवा अविहित, उन सब को हे करुणासागर महादेव शम्भो।! क्षमा कीजिये। आपकी जय हो, जय हो॥ १४॥ 


॥ इति श्रीमच्छड्जराचार्यविरचितं श्रीशिवापराधक्षमापनस्तोत्रं सम्पूर्णम्॥
॥ इस प्रकार श्रीमच्छंकराचार्यविरचित श्रीशिवापराधक्षमापनस्तोत्र
सम्पूर्ण हुआ॥


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