महिम्न: पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी स्तुतितब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः ॥ शिवमहिम्नःस्तोत्रम्‌ ॥ Shiv Mahimnah Stotram

  

शिवमहिम्नःस्तोत्रम्‌

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महिम्न: पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी 

स्तुतितब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः। 

अथावाच्य: सर्व: स्वमतिपरिणामावधि गृणन् 

ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपषवाद: परिकरः॥ १॥ 

 


( गंधर्व राज पुष्पदंत भगवान शंकर की स्तुति के उपक्रम में 

कहते हैं--) 'हे पाप हरण करनेवाले शंकर जी! आपकी महिमा के 

आर-पार के ज्ञान से रहित सामान्य (अल्प ज्ञानवान्) व्यक्ति के 

द्वारा की गयी आपकी स्तुति यदि आपके स्वरूप (माहात्म्य)- 

वर्णन के अनुरूप नहीं है तो (फिर) ब्रह्मादि देवों की वाणी 

भी आपकी स्तुति के अनुरूप नहीं है (क्योंकि वे भी आपके 

गुणों का सर्वथा वर्णन नहीं कर सकते)। किंतु जब सभी 

लोग अपनी-अपनी बुद्धि (की शक्ति) के अनुसार स्तुति 

करते हुए उपालम्भ के योग्य नहीं माने जाते हैं, तब मेरा 

भी स्तुति करने का (यह) प्रयास अपवाद रहित ही होना 

चाहिये! (यह प्रयास खण्डनीय नहीं है)॥१॥ 


अतीत: पन्थानं तव च महिमा वाड्ममनसयो- 

रतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि। 

स कस्य स्तोतव्य: कतिविधगुण: कस्य विषय: 

पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः॥ २॥ 



'आपकी महिमा वाणी और मन की पहुँच से परे है। 

आपकी उस महिमा का वेद भी (आश्चर्य-) चकित (भयभीत) 

होकर (निषेधमुखेन) नेति-नेति कहते हुए आशयरूप में वर्णन 

करते हैं। फिर तो ऐसे अचिन्त्य महिमामय आप किसकी

स्तुति के विषय (वर्ण्य) हो सकते हैं? अर्थात् किसी को

स्तुति तदर्थ समर्थ नहीं हो सकती; क्योंकि आपके गुण न 

जाने कितने प्रकार के हैं अर्थात् अनन्त हैं। फिर भी हे प्रभो! 

नवीन परम रमणीय आपके (सगुण-) रूपके विषय में वर्णन के 

लिये किसका मन आसक्त नहीं होता और किसकी वाणी 

उसमें प्रवृत्त नहीं होती ? अर्थात्-सबके मन-वचन सगुणरूप में 

संलग्न हो जाते हैं-सभी अपनी वाणी को प्रेरित करके 

वर्णन में लगा देते हैं'॥२॥ 


मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवत-


स्तव ब्रह्मन् कि वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्। 

मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः 

पुनामीत्यर्थेडस्मिन् पुरमथन बुद्धिव्यवसिता॥ ३॥



'हे भगवन्! मधु से सिक्त-सी अत्यन्त मधुर एवं परम 

उत्तम अमृत रूप वेद वाणी की रचना करने वाले देवाधिदेव 

ब्रह्मदेव की वाणी भी क्‍या आपके गुणों को प्रकाशित कर आपको 

चमत्कृत कर सकती है? (कदापि नहीं) फिर भी हे त्रिपुरारि! 

मेरी बुद्धि आपके गुणानुवाद जनित पुण्य से अपनी इस (मलिन 

वासना से भरी अतएवं अपवित्र) वाणी को पवित्र करने के 

लिये (ही) आपके गुण-कथन के द्वारा (की जानेवाली) स्तुति के 

विषय में उद्यत है' (न कि अपने स्तुति-कौशल से आपका 

अनुरंजन करूँगा--यह मेरा अभिप्राय है)॥३॥


तवैश्वर्य यत्तजगदुदयरक्षाप्रलयकृत् 

त्रयीवस्तुव्यस्त॑ तिसूषु गुणभिन्नासु तनुषु। 

अभव्यानामस्मिनू__ वरद रमणीयामरम्णीं 

विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधिय: ॥ ४॥ 



'हे वर देनेवाले शिवजी! आप विश्वका सृजन, पालन एवं 

संहार करते हैं--ऐसा ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद (वेदत्रयी ) 

निष्कर्ष रूप से वर्णन करते हैं। इसी प्रकार तीनों गुणों से विभिन्‍न 

त्रिमूर्तियों (ब्रह्मा-विष्णु-महेश) में बँटा हुआ जो इस ब्रह्माण्ड में 

आपका वह प्रख्यात (रचनात्मक, पालनात्मक एवं संहारात्मक) 

ऐश्वर्य है, उसके विषय में खण्डन करने के लिये कुछ जडबुद्धि 

अकल्याणभागी (मन्दों) अभागों (नास्तिकों) को मनोहर लगने वाला 

पर वास्तव में अशोभनीय या हानिकारक व्यर्थ का मिथ्या प्रलाप 

(बकवाद) उठाते हैं '॥ ४॥ 


किमीहः कि काय: स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं 

किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च। 

अतर्क्यैंश्वर्य. त्वव्यनवसरदुःस्थोी. हतधिय: 

कुतकको5यं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगत: ॥ ५॥ 



“हे वरद भगवन्! वह विधाता त्रिभुवन का निर्माण करता है 

तो उसकी कैसी चेष्टा होती है ? उसका स्वरूप क्‍या है? फिर 

उसके साधन कया हैं ? आधार अर्थात् जगत् का उपादान कारण 

क्या है ? इस प्रकार का कुतर्क, सब तर्कों से परे अचिन्त्य 

ऐश्वर्य वाले आपके विषय में निराधार एवं नगण्य (उपेक्षित) होता 

हुआ भी सांसारिक (साधारण) जनों को भ्रम में डालने के लिये 

कुछ मूर्खो को वाचाल बना देता है'॥५॥


अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोडपि जगता- 

मधिष्ठातारं कि भवविधिरनादृत्य भवति। 

अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो 

यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे॥ ६॥ 

 


'हे देव! श्रेष्ठ अवयववाले (शरीरधारी) होते हुए भी ये 

लोक क्‍या बिना जन्मके ही हैं ? (नहीं, कदापि नहीं;) क्‍या 

विश्व की सृष्टि-पालन-संहार आदि क्रियाएँ बिना (अधिष्ठान) 

कताके माने सम्भव हो सकती हैं? या ईश्वरके बिना कोई 

सामान्य जीव ही अधिष्ठान या कर्ता हो सकता है? (नहीं; 

क्योंकि) यदि असमर्थ जीव ही कर्ता है तो चौदह भुवनों की 

सृष्टि के लिये उसके पास क्‍या साधन हो सकता है ? (इस प्रकार 

आपके अस्तित्व के प्रमाण सिद्ध होने पर भी) यत: वे (जडबुद्धि) 

शंका करते हैं, अतः वे बड़े अभागी हैं'॥६॥ 



त्रयी सांख्यं योग: पशुपतिमतं वैष्णवमिति 

प्रभिन्‍ने प्रस्थाने परमिदमदः पशथ्यमिति च। 

रुचीनां वैचित्रयादृजुकुटिलनानापथजुषां 

नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इब॥ ७॥



“ऋक्, यजु:, साम--ये वेद, सांख्यशास्त्र, योगशास्त्र, पाशुपतमत, 

वैष्णयममत आदि विभिन्‍न मत-मतान्तर हैं। इनमें (सभी लोग 

हमारा) यह मत उत्तम है, हमारा मत लाभप्रद है (दूसरों का 

नहीं;)--इस प्रकार की रुचियोंbकी विचित्रता से सीधे-टेढ़े नाना 

मार्गो से चलने वाले साधकों के लिये एकमात्र प्राप्तव्य (गन्तव्य) 

आप ही हैं। जैसे सीधे-टेढ़े मार्गो से बहती हुई सभी नदियाँ 

अन्त में समुद्र में ही पहुँचती हैं, उसी प्रकार सभी मतानुयायी 

आपके ही पास पहुँचते हैं'॥ ७॥


महोक्ष: खट्वाड़ं परशुरजिनं भस्म फणिन: 

कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्। 

सुरास्तां तामृद्धिं दधति च भवदभ्रूप्रणिहितां 

न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति॥ ८॥ 


'हे वरदानी शंकर! बूढ़ा बैल, खटियेका पावा, फरसा, 

चर्म, भस्म, सर्प, कपाल--बस इतनी ही आपके कुटुम्ब-

पालन की सामग्री है। फिर भी इन्द्रादि देवताओं ने आपके 

कृपा कटाक्ष से ही उन अपनी विलक्षण (अतुलनीय) समृद्धियों 

(भोगों )-को प्राप्त किया है; किंतु आपके पास भोगकी कोई 

वस्तु नहीं है; क्योंकि विषयवासनारूपी मृगतृष्णा स्वरूपभूत 

चैतन्य आत्माराममें रमण करनेवालेको भ्रमित नहीं कर पाती 

है'॥८॥ 


श्रुव॑ कश्चित् सर्व सकलमपरस्त्वश्लुवमिदं 

परो क्षौव्याक्षौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये। 

समस्ते5प्येतस्मिनू पुरमथन तैर्विस्मित इब 

स्तुवज्जिह्ठेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता॥ ९॥ 


'हे त्रिपुरारि! कोई वादी इस सम्पूर्ण जगतू को श्रुव 

(नित्य) कहता है, कोई इस सबको अध्रुव (असत् या 

अनित्य) बताता है और कोई तो विश्व के समस्त पदार्थो में 

कुछ नित्य और कुछ अनित्य है--ऐसा कहता है। उन सब 

वादों से आश्चर्य चकित-सा मैं उन्हीं वादों (स्तुति-प्रकारों )-से 

आपकी स्तुति करता हुआ लज्जित नहीं हो रहा हूँ; क्योंकि 

मुखरता (वाचालता) धृष्ट होती ही है! (उसे लज्जा 

कहाँ ?) ॥ ९॥


तवैश्वर्य यत्लाद् यदुपरि विरिज्चो हरिरधः 

परिच्छेतुं यातावनलमनलस्कन्धवपुष: । 

ततो भक्तिश्रद्धाभरगुरुगणदभ्यां गिरिश यत् 

स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिन फलति॥ १०॥ 


'हे गिरिश! (अग्नि-स्तम्भ के समान) आपका जो लिंगाकार 

तैजस रूप (ऐश्वर्य) प्रकट हुआ उसके ओर-छोर को जानने के 

लिये ऊपर की ओर ब्रह्मा तथा नीचे की ओर विष्णु बड़े प्रयत्न से 

गये; पर (वे दोनों ही) पार पाने में असमर्थ रहे। तब उन दोनों ने 

श्रद्धा और भक्ति से पूर्ण बुद्धि से नतमस्तक हो आपकी स्तुति की। 

(तब उनकी स्तुति से प्रसन्‍न हो) आप उन दोनों के समक्ष स्वयं 

प्रकट हो गये। हे भगवन्! श्रद्धा-भक्ति पूर्वक की गयी आपकी 

सेवा (स्तुति) क्या फलीभूत नहीं होती ?” (अर्थात् अवश्य 

फलीभूत होती है)॥१०॥ 



अयलादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं 

दशास्यो यद् बाहूनभूत रणकण्डूपरवशान्। 

शिरःपद्मश्रेणीरचितचरणाम्भोरुहबले: 

स्थिरायास्त्वद्धक्तेस्त्रिपुहहर विस्फूर्जितमिदम्॥ ११॥ 



'हे त्रिपुरारि! दशमुख रावण ने तीनों भुवनों का निष्कण्टक 

राज्य बिना प्रयत्न (अनायास) प्राप्त कर जो अपनी भुजाओं की 

युद्ध करने की खुजलाहट न मिटा सका (प्रतिभट से युद्ध 

करने की इच्छा पूर्ण न कर सका; क्‍योंकि कोई प्रतिभट 

मिला ही नहीं)) यह आपके चरण कमलों में अपने दस 

सिररूपी कमलों की बलि प्रदान करने में प्रवृत्त आपमें अविचल 

भक्ति का ही प्रभाव है'॥११॥


अमुष्य _त्वत्सेवासमधिगतसारं भुजवनं 

बलात् कैलासे5पि त्वदधिवसतौ विक्रमयत: । 

अलभ्या पाताले5प्यलसचलिताडगगुष्ठशिरसि 

प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् श्रुवमुपचितो मुह्मोति खलः: ॥ १२॥ 

 

'हे त्रिपुरारि! आपको सेवा से रावण की भुजाओं में शक्ति 

प्राप्त हुई थी। अभिमान में आकर वह अपना भुजबल आपके 

निवास-स्थान कैलास के उठानेbमें भी तौलने लगा, पर आपने 

जो पैरbके अँगूठे की नोक से जरा-सा कैलास को दबा दिया 

तो उस रावण की प्रतिष्ठा (स्थिति) पाताल में भी दुर्लभ 

हो गयी। (वह नीचे-ही-नीचे खिसकता चला गया।) प्राय: 

यह निश्चित है कि नीच व्यक्ति समृद्धि को पाकर मोह में 

फँस जाता है' (कृतघ्न हो जाता है)॥१२॥ 



यदूदद्रि सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सती- 

मधएचक्रे बाण: परिजनविधेयस्त्रिभुवनः। 

न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयो- 

न कस्याप्युन्नत्ये भवति शिरसस्त्वय्यवनति:॥ १३॥


“हे वरदानी शंकर! त्रिभुवन को वशवर्ती बनाने वाले बाणासुर ने 

इन्द्रकी अपार (परमोच्च) सम्पत्ति को भी जो अपने समक्ष 

नीचा कर दिया, वह आपके चरणों के शरणागत (सेवक) 

उस बाणासुर के विषय में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं 

है; क्योंकि आपके समक्ष सिर झुकाना (नतमस्तक होना) 

किसकी (किस-किस विषय की) उनन्‍नति के लिये नहीं होता? 

अर्थात् आपके चरणों में सिर झुकाने से सबकी सब प्रकार की 

उन्‍नति होती है'॥१३॥


अकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपा- 

विधेयस्यासीद्यस्त्रियनविषं संहतवतः। 

स कल्माष: कण्ठे तब न कुरुते न अरियमहो 

विकारो5पि एलाघ्यो भुवनभयभडुव्यसनिन: ॥ १४॥ 


'हे त्रिनेत्र शंकर! समुद्र मंथन से उत्पन्न विषकी विषम 

ज्वाला से असमय में ही ब्रह्माण्ड के नाश के भय से चकित देवों 

और दानवों पर दयारद्र होकर विषपान करने वाले आपके 

कण्ठमें जो कालापन (नीला धब्बा) है, वह क्‍या आपकी 

शोभा नहीं बढ़ा रहा है। (अर्थात् महोपकार के कार्य से उत्पन्न 

होने के कारण और अधिक शोभा बढ़ा रहा है।) वस्तुतः 

संसार के भय को दूर करने के स्वभाव वाले महापुरुषों का विकार 

भी प्रशंसनीय होता है!॥ १४॥ 



असिद्धार्था नैव क्वाचिदपि सदेवासुरनरे 

निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखा:। 

स॒ पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत् 

स्मरः स्मर्तव्यात्मा नहि वशिषु पथ्य: परिभव:॥ १५॥ 


'हे जगदीश! जिस कामदेव के बाण देव, असुर एवं 

नरसमूहरूप विश्व में नित्य विजेता रहे, कहीं भी असफल 

होकर नहीं लौटते थे, वही कामदेव जब आपको अन्य 

देवताओं के समान (जेय) समझने लगा, तब आपके देखते 

ही वह स्मृतिमात्र शेष रह गया (भस्म हो गया) और 

(सच है कि) जितेन्द्रियों का अपमान (उन्हें विचलित 

करने का उपक्रम) कल्याणकारी नहीं (अपितु घातक) होता 

है'॥ १५॥


मही पादाघाताद् ब्रजति सहसा संशयपदं 

पदं विष्णोर्भ्राम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम्। 

मुहुद्यौंदों:स्थ्यं यात्यनिभूतजटाताडिततटा 

जगद्रक्षायै त्व॑ नटसि ननु वामैव विभुता॥ १६॥ 


'हे ईश! जब आप ताण्डव (नर्तन) करते हैं तब आपके 

पैरोंके आघात (चोट)-से पृथ्वी अचानक संशय (संकट)-को 

प्राप्त हो जाती है; आकाशमण्डलके ग्रह-नक्षत्र-तारे आपके घूमते 

हुए भुजदण्ड (-की चोट)-से पीडित हो जाते हैं (अतः 

आकाशमण्डल भी संकटग्रस्त हो जाता है) | स्वर्ग आपकी खुली 

(बिखरी) हुई जटाओंके किनारोंकी चोटसे बारम्बार दुःखद 

स्थितिको प्राप्त हो जाता है। यद्यपि आप जगत्की रक्षाके लिये 

ही ताण्डव करते हैं; फिर भी आपकी प्रभुता (तो) वाम 

(क्षोभद) हो ही जाती है' (सच है सम्पत्तिवालेका उचित कार्य 

भी विक्षोभ उत्पन्न कर देता है)॥१६॥ 


वियद्व्यापी तारागणगुणितफेनोदगमरुचि:

प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्ट: शिरसि ते। 

जगद् द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमि- 

त्यनेनैवोन्नेये धृतमहिम दिव्यं तव वपु:॥ १७॥ 


“हे जगदीश! समस्त आकाश में फैले तारों के सदृश फेन की 

शोभावाला जो गंगाजल का प्रवाह है, वह आपके सिरपर 

जलविन्दु के समान (छोटा) दिखायी पड़ा और (सिर से नीचे 

गिरने पर) उसी जलविन्दु ने समुद्ररूपी करधनी (वलय)-के 

भीतर संसार को द्वीप के समान बना दिया। बस, इसी से आपका 

दिव्य शरीर सर्वोत्कृष्ट है यह अनु--मेय हो जाता है'॥ १७॥


रथः क्षोणी यन्‍ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो 

रथाड़े चन्द्रा्कोँ रथचरणपाणि: शर इति। 

दिधक्षोस्ते को5यं त्रिपुरतृणमाडम्बरविधि- 

विंधेये: क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्रा: प्रभुधिय: ॥ १८ ॥ 


'हे परमेश्वर! त्रिपुरा सुररूपी तृण को दग्ध करने के इच्छुक 

आपने पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथि, सुमेरु पर्वत को धनुष, 

चन्द्र और सूर्य को रथ के दोनों चक्के और चक्रपाणि विष्णु को 

(जो) बाण बनाया, (तो) यह सब आडम्बर (समारम्भ) 

करने का क्‍या प्रयोजन था? (सर्वसमर्थ आप उसे अपने 

इच्छामात्र से जला सकते थे) निश्चय ही अपने वशवर्ती 

(हाथ में स्थित) खिलौनों से खेलती हुई ईश्वर की बुद्धि 

पराधीन नहीं होती” (अर्थात् वह स्वतन्त्र रूप से अपने खिलौनों से 

खेलती रहती है)॥१८॥ 


हरिस्ते साहस्त्र॑ कमलबलिमाधाय पदयो- 

यदेकोने तस्मिन् निजमुद॒हरन्नेत्रकमलम्। 

गतो भक्त्युद्रेद: परिणतिमसौ चक्रवपुषा 

त्रयाणां रक्षायै त्रिपुहहर जागर्ति जगताम्॥ १९॥ 


'हे त्रिपुरारि! भगवान् विष्णु ने आपके चरणों में एक हजार 

कमल चढ़ाने का संकल्प किया था। उनमें जो एक कमल कम 

पड़ गया तो उन्होंने अपना ही नेत्र कमल उखाड़ कर चढ़ा दिया। 

बस, उनकी यही भक्ति की पराकाष्ठा सुदर्शन चक्र का स्वरूप 

धारण कर त्रिभुवन की रक्षा के लिये सदा जागरूक है' (भगवान् 

शंकर ने प्रसन्‍न होकर श्रीविष्णु को चक्र प्रदान कर दिया था, जो 

विश्व का संरक्षण अनुग्रह-निग्रह द्वारा करता है)॥ १९॥



क्रतौ सुप्ते जाग्रत््त्मसि फलयोगे क्रतुमतां 

क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते। 

अतस्त्वां सम्प्रेक्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवं 

श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दृढपरिकर: कर्मसु जन: ॥ २०॥ 


'हे त्रिपुरारि! (बिना फल दिये ही) यज्ञादि के समाप्त 

हो जाने पर यज्ञ कर्ताओं का यज्ञफल से सम्बन्ध करने के लिये 

(फल दिलाने के लिये) आप तत्पर रहते हैं। कर्म तो 

करने के बाद नष्ट हो जाता है (वह जड है)। अत: चेतन 

परमेश्ववर की आराधना के बिना वह नष्ट कर्म फल देने में 

समर्थ नहीं होता है। इसलिये आपको यज्ञों के फल देने में 

समर्थ दाता देखकर पुण्यात्मा लोग वेदवाक्यों में श्रद्धा-विश्वास 

रखकर (यज्ञ-) कर्म में तत्पर रहते हैं'॥२०॥ 



क्रियादक्षो दक्ष: क्रतुपतिरधीशस्तनुभृता- 

मृषीणामार्तिज्यं शरणद सदस्या: सुरगणा:। 

क्रतुशभ्रषस्त्वत्त: क्रतुफलविधानव्यसनिनो 

श्रुवं कर्तुः श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखा: ॥ २१॥ 


'हे शरणदाता शंकर! कार्य में कुशल प्रजाजनों का स्वामी 

प्रजापति दक्ष यज्ञका यजमान (क्रतुपति) बना था। त्रिकालदर्शी 

ऋषिगण याज्ञिक (यज्ञ कराने वाले होता आदि) थे। देवगण 

यज्ञ के सामान्य सदस्य थे। फिर भी यज्ञ फल के वितरण के 

व्यसनी आपसे ही यज्ञ का विध्वंस हो गया। अत: यह 

निश्चित है कि अश्रद्धा से किये गये यज्ञ (कर्म) कर्ता के 

विनाश के लिये ही सिद्ध होते हैं! (दक्ष ने श्रद्धावर्जित यज्ञ 

किया था)॥२१॥


प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं 

गतं रोहिदभूतां रिस्मयिषुमृष्यस्थ वपुषा। 

धनुष्पाणेर्यातें दिवमपि सपत्राकृतममुं 

त्रसन्तं तेड्द्यापि त्यजति न मृगव्याधरभस: ॥ २२॥ 


'हे स्वामिन्! (एक बार) कामुक ब्रह्मा ने अपनी दुहिता से 

हठपूर्वक रमण करने की इच्छा की। वह लज्जा से मृगी बनकर 

भागी; तब ब्रह्मा भी मृग बनकर उसके पीछे दौड़े। आपने भी 

उन्हें दण्ड देनेके लिये मृग के शिकारी के वेग के समान हाथ में 

धनुष लेकर बाण चला दिया। स्वर्ग में जानेपर भी ब्रह्मा आपके 

बाण से भयभीत हो रहे हैं। उन्हें बाण ने आज भी नहीं छोड़ा है; 

अर्थात् ब्रह्मा 'मृगशिरा' नक्षत्र बनकर भागे तो बाण ' आर्द्रा' नक्षत्र 

बनकर आज भी पीछा करता है” (ये दोनों आकाश मण्डल में 

आगे-पीछे देखे जा सकते हैं)॥ २२॥ 



स्वलावण्याशंसाधृतधनुषमहनाय तृणवत् 

पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि। 

यदि स्त्रेणं देवी यमनिरतदेहार्धधटना- 

दवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः॥ २३॥ 


[यह पौराणिक कथा है कि एक बार ब्रह्मा अपनी दुहिता 

सन्ध्या को अत्यन्त रूप-लावण्यवती देखकर मोहित हो गये। 

उन्होंने उपगमन करना चाहा। सन्ध्या लज्जा के मारे मृगी बनकर 

भाग चली। ब्रह्मा ने मृरूप बना लिया और पीछा किया। इस 

अनर्थ को देखकर भगवान् भूतभावन ने प्रजानाथ को दण्डित 

करने के लिये पिनाक चढ़ाकर बाण छोड़ दिया। उससे पीडित 

तथा लज्जित होकर ब्रह्मा मृगशिरा नक्षत्र हो गये। फिर रुद्र का 

बाण भी आर्द्रा नक्षत्र होकर उनके पीछे-भाग में लग गया। वह 

आज भी उनके पीछे लगा हुआ दीखता है।] 

'हे त्रिपुरारि! हे यम-नियम परायण! हे वरद शंकर! अपने सौन्दर्य से 

 शिव पर विजय प्राप्त कर लूँगा'--इस सम्भावना से 

हाथमें धनुष उठाये हुए कामदेव को सामने ही तुरंत आपके द्वारा 

तिनकेकी भाँति भस्म होता हुआ देखकर भी यदि देवी 

(पार्वती जी ) अर्धनारीश्वर (आधे शरीर में पार्वती को स्थान देने )- 

के कारण आपको स्त्री भक्त जानती हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की 

बात नहीं है; क्‍योंकि स्त्रियाँ (स्वभावत:) अज्ञानी होती 

हैं'॥ २३॥ 



श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचा: सहचरा- 

श्चिताभस्मालेपः सरत्रगपि नृकरोटीपरिकरः। 

अमड्ल्‍ल्यं शीलं॑ तव भवतु नामैवमखिलं 

तथापि स्मर्तृणां वरद परम॑ मड्भलमसि॥ २४॥ 



'हे कामरिपु! हे वरद शंकर जी ! आप श्मशानों में क्रीडा करते 

हैं, प्रेत-पिशाचगण आपके साथी हैं, चिता की भस्म आपका 

अंग राग है, आपकी माला भी मनुष्य की खोपडियों की है। इस 

प्रकार यह सब आपका अमंगल स्वभाव (स्वाँग) देखने में भले 

ही अशुभ हो, फिर भी स्मरण करने वाले भक्तों के लिये तो आप 

परम मंगलमय ही हैं'॥ २४॥ 


मनः प्रत्यक्चित्ते सविधमवधायात्तमरुतः 

प्रहष्यद्रोमाण: प्रमदसलिलोत्सड्रितदृशः ।

यदालोक्याहाद॑ हृद इव निमज्यामृतमये 

दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान्॥ २५॥ 



'हे प्रभो! (शम-दम आदि साधनों से सम्पन्न) यमीलोग 

शास्त्रोपदिष्ट विधि से वायु रोक कर (प्राणायाम कर) हृदयकमल में 

मन को बहिर्मुखी (संकल्प-विकल्पात्मक) सभी वृत्तियों से शून्य

करके अपने भीतर जिस किसी विलक्षण (आनन्दरूप परब्रह्म 

चिम्मात्र) तत्त्व का दर्शन कर रोमांचित हो जाते हैं और उनकी 

आँखें आनन्द के आँसुओं से भर जाती हैं। उस समय मानो वे 

अमृत के समुद्र में अवगाहन कर दिव्य आनन्द का अनुभव करते 

हैं; वह निर्गुण आनन्द स्वरूप ब्रह्म निश्चय रूप से आप ही 

हैं'॥ २५॥ 



त्वमर्कस्त्व॑ सोमस्त्वमसि पवनस्त्व॑ हुतवह-

स्त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च। 

परिच्छिन्नामेव॑ त्वयि परिणता बिश्रतु गिरं 

न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत्त्वं न भवसि॥ २६॥ 


'हे भगवन्! परिपक्व बुद्धि वाले प्रौढ़ विद्वान् आप सूर्य हैं, 

आप चन्द्र हैं, आप पवन हैं, आप अग्नि हैं, आप जल हैं, आप 

आकाश हैं, आप पृथ्वी हैं, आप आत्मा हैं इस प्रकार की 

सीमित अर्थ युक्त वाणी आपके विषय में कहते रहे हैं; पर हम तो 

विश्व में ऐसा कोई तत्त्व (वस्तु) नहीं देखते (जानते) जो स्वयं 

साक्षात् आप न हों'॥ २६॥ 




त्रयीं तिस्त्रो वृत्तीस्ब्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरा- 

नकाराद्यैर्वणैंस्त्रभिरभिदधत् तीर्णविकृति। 

तुरीय॑ ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः 

समस्तं व्यस्तं त्वं शरणद गृणात्योमिति पदम्॥ २७॥ 


“हे शरण देने वाले! ओम्-यह शब्द अपने व्यस्त (पृथक्- 

पृथक् अक्षर वाले) अकार, उकार, मकार रूप से तीनों वेद (ऋक्, 

यजु:, साम), तीनों अवस्था (जाग्रतू-स्वन-सुषुप्ति), तीनों 

लोक (स्वर्ग-भूमि-पाताल), तीनों देवता (ब्रह्मा-विष्णु-महेश), तीनों शरीर (स्थूल-सूक्ष्म-कारण), तीनों रूप (विश्व-तैजस-

प्राज्) आदिके रूप में आपका ही प्रतिपादन करता है तथा अपने 

अवयवों के समष्टि (संयुक्त-समस्त)-रूप (ओम्)-से निर्विकार 

निष्कल तीन अवस्था एवं त्रिपुटियों से रहित आपके तुरीय 

स्वरूप की सूक्ष्म ध्वनियों से ग्रहण कर प्रतिपादन करता है! ( ॐ

आपके स्वरूप का सर्वतः निर्वचन करता है)॥२७॥ 



भव: शर्वों रुद्रः पशुपतिरथोग्र: सहमहां- 

स्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्। 

अमुष्मिन् प्रत्येके प्रविचरति देव श्रुतिरपि 

प्रियायास्मै धाम्ने प्रविहितनमस्यो5स्मि भवते॥ २८ ॥ 


'हे महादेव! आपके जो आठ अभिधान (नाम)--भव, शर्व, 

रुद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम और ईशान हैं, उनमें प्रत्येक में 

वेदमन्त्र भी पर्याप्त मात्रा में विचरण करते हैं और वेदानुगामी 

पुराण भी इन नामों में विचरते हैं; अर्थात् वेद-पुराण सभी उन 

आठों नामों का अतिशय प्रतिपादन करते हैं। अतः परम प्रिय एवं 

प्रत्यक्ष समस्त जगत् के आश्रय आपको मैं साष्टांग प्रणाम करता 

हूँ!॥ २८॥ 



नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो 

नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः । 

नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमो 

नमः सर्वस्मै ते तदिदर्मिति शर्वाय च नमः ॥ २९॥ 



'हे अति निकटवर्ती और एकान्त (निर्जन) वन-विहारके 

प्रेमी! आपको प्रणाम है; अति दूरवर्ती आपको प्रणाम है। 

है कामारि! अति लघु (सूक्ष्मरूपधारी) आपको प्रणाम है।

हे अति महान्! आपको प्रणाम है। हे त्रिनेत्र वृद्धतम ! आपको नमस्कार 

है; अत्यन्त युवक! आपको प्रणाम है। सर्वस्वरूप! आपको 

नमस्कार है; परोक्ष, प्रत्यक्ष पदसे परे अनिर्वचनीय सबके 

अधिष्ठानस्वरूप ! आपको नमस्कार है'॥ २९॥ 


बहुलरजसे विश्वोत्पत्ता भवाय नमो नमः 

प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नमः। 

जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तोी मृडाय नमो नमः 

प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नम: ॥ ३०॥ 



“विश्व की सृष्टिके लिये रजो गुण की अधिकता धारण करनेवाले 

ब्रह्मा रूपधारी ! आपको बारम्बार नमस्कार है। विश्व के संहार के 

लिये तमोगुण जी अधिकता धारण करनेवाले हर (रुद्र)- 

रूपधारी ! आपको बारम्बार नमस्कार है। समस्त जीवों के सुख 

(पालन)-के लिये सत्त्गुण की अधिकता धारण करनेवाले 

विष्णुरूप धारी (आप) मृड को बारम्बार नमस्कार है। स्वयं 

प्रकाश मोक्ष के लिये त्रिगुणातीत, समस्त द्वैत से रहित मंगलमय 

अट्ठैत (आप) शिव को बारम्बार नमस्कार है'॥३०॥ 



कृशपरिणति चेतः क्लेशवश्यं क्‍व चेदं 

क्व च तव गुणसीमोल्लड्वडिनी शश्वदृद्धिः। 

इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद् 

वरद चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोपहारम्॥ ३१॥ 


'हे वरद शिव! (अविद्या आदि) कष्टों के वशीभूत (अल्प शक्तियुक्त) कहाँ तो यह मेरा चित्त और कहाँ सम्पूर्ण गुणों की सीमा के बाहर पहुँची सदा (त्रिकाल) स्थायिनी आपकी ऋद्धि (विभूति)। (दोनों में बहुत असमानता है।) इसी भय से ग्रस्त आपके चरणों की भक्तिnने मुझे उत्साहित कर आपके चरणोंमें मुझसे वाक्यरूपी पुष्पोपहार, वाक्य कुसुमांजलि, वाक्यचय की स्तुतिरूपी अंजलि समर्पित करायी है!॥३१॥


असितगिरिसमं स्यातू कज्जलं सिल्धुपात्रे 

सुरतरुवरशाखा लेखनी पपत्रमुर्वी। 

लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं 

तदपि तव गुणानामीश पार न याति॥ ३२॥ 


'हे ईश! यदि काले पर्वतके समान स्याही हो, समुद्रकी 

दावात हो, कल्पवृक्षकी शाखाओंकी कलम बने, पृथ्वी 

कागज बने और इन साधनोंसे यदि सरस्वती (स्वयं) सर्वदा 

(जीवनपर्यन्त) आपके गुणोंको लिखें तब भी वे आपके 

गुणोंका पार नहीं पा सकेंगी'॥ ३२॥ 



असुरसुरमुनीन्द्रैर्चितस्येन्दुमौले- 

ग्रीथितगुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य। 

सकलगणवरिष्टः पुष्पदन्ताभिधानो 

रुचिरमलघुवृत्तेः स्तोत्रमेतच्चयकार॥ ३३॥ 




“इस प्रकार शिव के सभी गणों में श्रेष्ठ पुष्पदंत नामक 

गन्धर्व ने दैत्येन्द्रों, सुरेन्द्रों एवं मुनीन्द्रों से पूजित, समस्त गुणों से 

परिपूर्ण होते हुए भी निर्गुण जगदीश्वर चन्द्रशेखर भगवान्‌ 

शिवजी के इस सुन्दर स्तोत्र को बड़े इछन्दों में (स्तुति-हेतु) 

बनाया '॥ ३३ ॥


अहरहरनवचद्यं धूर्जटे: स्तोत्रमेतत् 

पठति परमभकत्या शुद्धचित्त: पुमान् यः। 

स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथात्र 

प्रचुरतरधनायु: पुत्रवानू_ कीर्तिमांश्च॥ ३४॥ 


'जो व्यक्ति पवित्र अन्तःकरण (हृदय)-से परम भक्ति के 

साथ भगवान् शंकरnके इस प्रशंसनीय स्तोत्र का नित्य पाठ करता 

है, वह इस लोक में पर्याप्त धन एवं आयु को पाता है, पुत्रवान् 

और यशस्वी होता है तथा (मृत्यु के बाद) शिवलोक को प्राप्त कर 

शिव के समान (आनन्दमग्न) रहता है!॥ ३४॥ 



महेशान्नापो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः। 

अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्॥३५॥ 


'महेश से बढ़कर (उत्तम) कोई देवता नहीं है, (इस) 

शिवमहिम्न:स्तोत्र से बढ़कर कोई स्तोत्र नहीं है। अघोर मन्त्र से 

बढ़कर कोई मन्त्र नहीं है, गुरु से बढ़कर कोई तत्त्व नहीं 

है!॥ ३५॥ 




दीक्षा दानं तपस्तीर्थ ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः। 

महिम्नः: स्तवपाठस्यथ कलां नाहन्ति षोडशीम्॥ ३६॥ 


“मन्त्र आदिकी दीक्षा, दान, तप, तीर्थाटन, ज्ञान तथा 

यज्ञादि--ये सब शिवमहिम्न:स्तोत्र की सोलहवीं कला (अंश)- 

को भी नहीं पा सकते'॥ ३६॥ 




कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराज: 

शिशुशशिधरमौलेदेवदेवस्य दासः।

स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात् 

स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्यदिव्यं महिम्न: ॥ ३७॥


'बालचन्द्र को सिरपर धारण करने वाले देवाधि देव महादेव का 

पुष्पदनंतनामक एक दास, जो सभी गन्धर्वो का राजा था, इन

शिवजी के कोप से अपने ऐश्वर्य से च्युत हो गया था। (उसके 

बाद) उसने इस परम दिव्य शिवमहिम्नःस्तोत्र की रचना की' 

(जिससे पुनः उसने उनकी कृपा प्राप्त की) ॥ ३७॥ 



सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमोक्षैकहेतुं 

पठति यदि मनुष्य: प्राञ्जलिर्नान्यचेता:। 

ब्रजति शिवसमीपं॑ किनन्‍नरैः स्तूयमानः 

स्तवनमिदममोधं पुष्पदन्तप्रणीतम्॥ ३८ ॥ 


“यदि मनुष्य हाथ जोड़कर एकाग्रचित्तसे देवताओं, मुनियोंके 

पूज्य, स्वर्ग एवं मोक्षको देनेवाले, पुष्पदन्तरचित इस अमोघ 

(अवश्य फल देनेवाले) स्तोत्रका पाठ करता है तो वह 

किननरोंसे स्तुति (प्रशंसा) प्राप्त करता हुआ भगवान् शिवके 

समीप (शिवलोकमें) पहुँच जाता है !॥ ३८॥ 



आसमाप्तमिदं स्तोत्र पुण्यं गन्धर्वभाषितम् 

अनौपम्यं॑ मनोहारि. शिवमीश्वरवर्णनम्॥ ३९॥ 



पुष्पदन्तरचित यह सम्पूर्ण स्तोत्र (आदिसे अन्ततक) पवित्र 

है, अनुपम है, मनोहर है, शिव (मंगलमय) है। इसमें ईश्वर 

(शिव)-का वर्णन है'॥ ३९॥ 


इत्येषा वाडम्मयी पूजा अश्रीमच्छड्टूरपादयो:। 

अर्पिता तेन देवेश: प्रीयतां मे सदाशिव:॥ ४०॥ 


“उस पुष्पदन्त ने यह शिवम यी पूजा श्रीमान् शंकर के चरणों में 

समर्पित की है। उसी प्रकार मैंने भी (पाठरूपी पूजा) समर्पित 

की है। अतः इससे सदाशिव मुझपर (भी) प्रसन्न हों'॥ ४० ॥



तब तत्त्व न जानामि कीदृशोउईसि महेश्वर। 

यादृशोडईसि महादेव तादूशाय नमो नमः॥ ४१॥ 



'हे महेश्वर | मैं आपका तत्त्व (वास्तविक रूप) नहीं जानता, 

आप कैसे हैं--इसका ज्ञान मुझे नहीं है। आप चाहे जैसे हों, वैसे 

ही आपको बार-बार प्रणाम है!॥४१॥ 


एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः। 

सर्वपापविनिर्मुक्त: शिवलोके._ महीयते॥ ४२॥ 


'जो मनुष्य शिवमहिम्नःस्तोत्र का पाठ एक समय, दोनों 

समय या तीनों समय करेगा, वह समस्त पापों से छुटकारा पाकर 

शिवलोक में पूजित होगा!॥ ४२॥ 


श्रीपुष्पदन्तमुखपड्डूजनिर्गतेन 

स्तोत्रेण किल्बिषदरेण हरप्रियेण। 

कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन 

सुप्रीिणितो भवति भूतपतिम्महेश: ॥ ४३॥ 



 

“पुष्पदन्त के मुख कमल से निकले हुए पापहारी शिवजी के 


प्रिय इस स्तोत्र को कण्ठस्थ (याद)-कर एकाग्रचित्त (मनोयोग)- 

से पाठ करने से समस्त प्राणियों के स्वामी महेश बहुत प्रसन्न

होते हैं'॥४३॥




॥ इति गन्धर्वराजपुष्पदन्तकृतं शिवमहिस्न:स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥ 

॥ इस प्रकार गन्धर्वराजपुष्पदन्तकृत शिवमहिस्न:स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ॥ 






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