नमामीशमीशान निर्वाणरूपं ॥ रुद्राष्टकम् ॥ Shree Rudrastaka

॥ रुद्राष्टकम्॥

Decorated Shivalinga With Flowers



नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् । 
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥१॥

अर्थात् - हे ईशान! मैं मुक्ति स्वरूप, समर्थ, सर्वव्यापक, ब्रह्म, वेदस्वरूप, निज स्वरूप में स्थित, निर्गुण, निर्विकल्प, निरीह, अनन्त ज्ञानमय और आकाश के समान सर्वत्र व्याप्त प्रभु को प्रणाम करता हूँ ॥१ ॥

निराकारमोङ्करमूलं तुरीयं गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम् 
करालं महाकालकालं कृपालं गुणागारसंसारपारं नतोऽहम् ॥२॥

अर्थात् - जो निराकार हैं, ओंकार रूप आदिकारण हैं, तुरीय हैं, वाणी, बुद्धि और इन्द्रियों के पथ से परे हैं, कैलासनाथ हैं, विकराल और महाकाल के भी काल, कृपाल, गुणों के आगार और संसार से तारने वाले हैं, उन भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२ ॥ 

तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभिरं मनोभूतकोटिप्रभाश्री शरीरम् 
स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगङ्गा लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥३॥

अर्थात् -  जो हिमालय के समान श्वेत वर्ण, गम्भीर और करोड़ों काम देवों के समान कान्तिमान् शरीर वाले हैं, जिनके मस्तक पर मनोहर गंगा जी लहरा रही हैं, भाल देश में बाल - चन्द्रमा सुशोभित होते हैं और गले में सर्पों की माला शोभा देती है ॥३ ॥

चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् 
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि ॥४॥

अर्थात् - जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, जिनके नेत्र एवं भृकुटि सुन्दर और विशाल हैं, जिनका मुख प्रसन्न और कण्ठ नील है, जो बड़े ही दयालु हैं, जो बाघ के चर्म का वस्त्र और मुण्डों की माला पहनते हैं, उन सर्वाधीश्वर प्रियतम शिव का मैं भजन करता हूँ ॥४ ॥

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशं 
त्र्यःशूलनिर्मूलनं शूलपाणिं भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥५॥

अर्थात् - जो प्रचण्ड, सर्वश्रेष् , प्रगल्भ, परमेश्वर, पूर्ण, अजन्मा, कोटि सूर्यके समान प्रकाशमान, त्रिभुवन के शूलनाशक और हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले हैं, उन भावगम्य भवानी पति का मैं भजन करता हूँ ॥५ ॥

कलातीतकल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी 
चिदानन्दसंदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥६॥

अर्थात् - हे प्रभो! आप कलारहित, कल्याणकारी और कल्प का अन्त करनेवाले हैं। आप सर्वदा सत्पुरुषों को आनन्द देते हैं, आपने त्रिपुरासुर का नाश किया था, आप मोहनाशक और ज्ञानानन्दघन परमेश्वर हैं, कामदेव के शत्रु हैं, आप मुझपर प्रसन्न हों, प्रसन्न हों ॥६ ॥

 यावद् उमानाथपादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् 
 तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं ॥७॥

अर्थात् - मनुष्य जबतक उमाकान्त महादेवजी के चरणारविन्दों का भजन नहीं करते, उन्हें इहलोक या परलोक में कभी सुख तथा शान्ति की प्राप्ति नहीं होती और न उनका सन्ताप ही दूर होता है। हे समस्त भूतों के निवास स्थान भगवान शिव! आप मुझ पर प्रसन्न हों ॥७ ॥

 जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम् 
जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ॥८॥

अर्थात् - हे प्रभो! हे शम्भो! हे ईश! मैं योग, जप और पूजा कुछ भी नहीं जानता, हे शम्भो! मैं सदा - सर्वदा आपको नमस्कार करता हूँ। जरा, जन्म और दुःख समूह से सन्तप्त होते हुए मुझ दुःखी की दुःख से आप रक्षा कीजिये ॥८ ॥

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥९॥

अर्थात् - जो मनुष्य भगवान शंकर की तुष्टिके लिये ब्राह्मण द्वारा कहे हुए इस 'रुद्राष्टक' का भक्ति पूर्वक पाठ करते हैं, उन पर शंकर जी प्रसन्न होते हैं ॥९ ॥ ॥

इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं सम्पूर्णम् 

 इस प्रकार श्रीगोस्वामी तुलसीदासरचित श्रीरुद्राष्टक सम्पूर्ण हुआ ।




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