व्यास जी बोले- हे वरदायिनी देवि! हे भगवति! तुम्हारी जय हो।
हे पापों को नष्ट करने वाली और अनन्त फल देने वाली देवि! तुम्हारी
जय हो! हे शुम्भ-निशुम्भ के मुण्डों को धारण करने वाली देवि! तुम्हारी
जय हो। देवताओं तथा मनुष्यों की पीड़ा हरनेवाली हे देवि! मैं तुम्हें
प्रणाम करता हँ॥१॥
जय भैरवदेहनिलीनपरे जय अन्धकदैत्यविशोषकरे ॥२॥
हे सूर्य-चन्द्रमा रूपी नेत्रों को धारण करने वाली! तुम्हारी जय हो। हे
अग्नि के समान देदीप्यमान मुख से शोभित होनेवाली! तुम्हारी जय हो।
है भैरव शरीर में लीन रहनेवाली और अन्धका सुर के रक्त का शोषण
करने वाली देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो॥२॥
जय देवि पितामहविष्णुनते जय भास्करशक्रशिरोऽवनते ॥३॥
महिषासुर का मर्दन करने वाली, शूलधारिणी और लोक के समस्त पापोंको
दूर करनेवाली हे भगवति! तुम्हारी जय हो। ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और इन्द्रसे
विनप्रभाव से नमस्कृत होने वाली हे देवि ! तुम्हारी जय हो, जय हो ॥ ३ ॥
जय दुःखदरिद्रविनाशकरे जय पुत्रकलत्रविवृद्धिकरे ॥४॥
सशस्त्र शंकर और कार्तिकेय जी के द्वारा बन्दित होने वाली हे देवि! तुम्हारी जय हो। शिव के द्वारा प्रशंसित एवं सागर में मिलने वाली हे देवि! तुम्हारी जय हो। दुःख और दरिद्रता का नाश तथा पुत्र-कलत्र की वृद्धि करनेवाली हे देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो॥ ४॥
जय व्याधिविनाशिनि मोक्षकरे जय वाञ्छितदायिनि सिद्धिवरे ॥५॥
हे देवि! तुम्हारी जय हो। तुम समस्त शरीरों को धारण करनेवाली,
स्वर्ग लोक का दर्शन कराने वाली और दु:ख हारिणी हो। हे व्याधिनाशिनी
देवि! तुम्हारी जय हो। मोक्ष तुम्हारे करतलगत है, मनोवांछित फल
देनेवाली श्रेष्ठ सिद्धियों से सम्पन्न हे देवि! तुम्हारी जय हो ॥ ५॥
जो काम-क्रोधसे रहित होकर शुद्धभावसे भगवान् शिवके समक्ष अथवा
घरपर ही व्यासजीद्वारा किये गये इस स्तोत्रका पाठ करता है, उसपर व्यासजी
प्रसन्न हो जाते हैं, वृषवाहन भगवान् शिव प्रसन्न हो जाते हैं और सभी पापोंका
विनाश करनेवाली देवी नर्मदा भी प्रसन्न हो जाती हैं। पृथ्वीलोकपर जो
नर्मदाकी स्तुति करते हैं, वे यमके दृष्टिपथमें नहीं जा पाते हैं ॥ ६--८ ॥
॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दमहापुराणान्तर्गत रेवाखण्डमें व्यासजीद्वारा
की गयी नर्मदास्तुति सम्पूर्ण हुई ॥