श्री सीताजीकृत गौरीवन्दना
( श्रीरामचरितमानस )
हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती!
आपकी जय हो, जय हो; हे महादेव जी के मुखरूपी चन्द्रमा की
[ ओर टकटकी लगाकर देखनेवाली ] चकोरी! आपकी जय हो;
जय गजबदन षडानन माता ।
जगत जननि दामिनि दुति गाता ॥
हे हाथीके मुखवाले गणेशजी और छः मुखवाले
स्वामिकार्तिकजीकी माता ! हे जगज्जननी ! हे बिजलीकी -
सी कान्तियुक्त शरीरवाली ! आपकी जय हो !
नहिं तव आदि मध्य अवसाना ।
अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना ॥
आपका न आदि है , न मध्य है और न अन्त है ।
आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते ।
भव भव बिभव पराभव कारिनि ।
बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि ॥
आप संसार का उद्भव, पालन और नाश करने वाली हैं।
विश्व को मोहित करने वाली और स्वतन्त्र रूप से विहार करनेवाली हैं।
पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख ।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष ॥
पति को इष्ट देव मानने वाली श्रेष्ठ नारियों में हे माता!
आपकी प्रथम गणना है। आपकी अपार महिमा को हजारों सरस्वती
और शेष जी भी नहीं कह सकते।
सेवत तोहि सुलभ फल चारी ।
बरदायनी पुरारि पिआरी ॥
हे [ भक्तों को मुँह माँगा ] वर देने वाली! हे त्रिपुर के शत्रु
शिव जी की प्रिय पत्नी! आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ हो जाते हैं।
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे ।
सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे ॥
हे देवि ! आपके चरण कमलों की पूजा करके
देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं।
मोर मनोरथु जानहु नीकें ।
बसहु सदा उर पुर सबही कें ॥
मेरे मनोरथ को आप भली भाँति जानती हैं; क्योंकि
आप सदा सब के हृदयरूपी नगरी में निवास करती हैं।
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं ।
अस कहि चरन गहे बैदेहीं ॥
इसी कारण मैंने उसको प्रकट नहीं किया ।
ऐसा कहकर जानकीजीने उनके चरण पकड़ लिये ।
बिनय प्रेम बस भई भवानी ।
खसी माल मूरति मुसुकानी ॥
गिरिजा जी सीताजी के विनय और प्रेम के वश में हो गयीं।
उन [ -के गले ] -की माला खिसक पड़ी और मूर्ति मुसकरायी ।
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ ।
बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ ॥
सीता जी ने आदर पूर्वक उस प्रसाद ( माला ) को सिरपर धारण किया।
गौरी जी का हृदय हर्ष से भर गया और वे बोलीं।
सुनु सिय सत्य असीस हमारी ।
पूजिहि मन कामना तुम्हारी ॥
हे सीता! हमारी सच्ची आसीस सुनो, तुम्हारी मन : कामना पूरी होगी।
नारद बचन सदा सुचि साचा ।
सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा ॥
नारद जी का वचन सदा पवित्र ( संशय, भ्रम आदि दोषों से रहित ) और सत्य है।
जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही वर तुमको मिलेगा।
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो ।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥
जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है,
वही स्वभाव से ही सुन्दर साँवला वर ( श्रीरामचन्द्र जी ) तुमको मिलेगा।
वह दया का खजाना और सुजान ( सर्वज्ञ ) है, तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है।
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली ।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली ॥
इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकी जी समेत
सब सखियाँ हृदय में हर्षित हुईं। तुलसीदास जी कहते हैं -
भवानी जी को बार - बार पूजकर सीता जी प्रसन्न मनसे राज महल को लौट चलीं।
जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि ।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ।
गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के हृदय को जो हर्ष हुआ
वह कहा नहीं जा सकता। सुन्दर मंगलों के मूल उनके बायें अंग फड़कने लगे ।